विरासत दिनकर की
(प्रथम संसर्ग)
हो गया दक्षिणावर्त रवि
ले पांव पखारे है समुद्र;
उदयाचल कब होगा अब तू?
रण-काव्य पुकारे हो तुझे क्रुद्ध ।
हताशा से ज्वलंत हृदय
करती पुकार ये धरा ऋणी;
हे ! मगध नरेश के अधिकारी
कर स्वीकृत मेरी श्रद्धांजलि ।
है कालजयी तेरी रचना
इति के पन्नो की अमिट छाप;
क्षितिज के रवि का अमूर्त रूप
करता मैं तुझको शत बार नमन ।
हे ! तिरुपति मुझे दे क्षमादान
मैं आज करूंगा तेरा अपमान;
दिनकर के प्राण क्यों तूने हरे?
मेरे मन को क्यों वेदना दिए ?
इस शब्द महारथी के विषाद का
नहीं किया तूने कोई समाधान;
यूँ मृत्यु के अभिलाषा को
तू कैसे करेगा सर्वमान्य?
अस्तितव के इस सार का
विस्तार करो तो क्या मिला ?
एक ऐसा राष्ट्र औ एक समाज
जो परिकल्पना के है परे ।
जाति-धर्म की महामारी से
सिंचित की है राजनीति;
राष्ट्र की परिकल्पना का
हमने किया है अग्निदान ।
है वेदना अब भी वही
कुछ नहीं हुआ अब तक सही;
काल के विकराल का मुख
हो गया है रण के सम्मुख ।
आदमी के चेतना को
जड़ रखा किस घाव ने?
चेतना की जागृति का
मार्ग अब प्रसस्त करो।
हे ! दिनकर तुम उदयाचल हो
इस धरा पे फिर क्षितिज धरो।
हो गया दक्षिणावर्त रवि
ले पांव पखारे है समुद्र;
उदयाचल कब होगा अब तू?
रण-काव्य पुकारे हो तुझे क्रुद्ध ।
हताशा से ज्वलंत हृदय
करती पुकार ये धरा ऋणी;
हे ! मगध नरेश के अधिकारी
कर स्वीकृत मेरी श्रद्धांजलि ।
है कालजयी तेरी रचना
इति के पन्नो की अमिट छाप;
क्षितिज के रवि का अमूर्त रूप
करता मैं तुझको शत बार नमन ।
हे ! तिरुपति मुझे दे क्षमादान
मैं आज करूंगा तेरा अपमान;
दिनकर के प्राण क्यों तूने हरे?
मेरे मन को क्यों वेदना दिए ?
इस शब्द महारथी के विषाद का
नहीं किया तूने कोई समाधान;
यूँ मृत्यु के अभिलाषा को
तू कैसे करेगा सर्वमान्य?
अस्तितव के इस सार का
विस्तार करो तो क्या मिला ?
एक ऐसा राष्ट्र औ एक समाज
जो परिकल्पना के है परे ।
जाति-धर्म की महामारी से
सिंचित की है राजनीति;
राष्ट्र की परिकल्पना का
हमने किया है अग्निदान ।
है वेदना अब भी वही
कुछ नहीं हुआ अब तक सही;
काल के विकराल का मुख
हो गया है रण के सम्मुख ।
आदमी के चेतना को
जड़ रखा किस घाव ने?
चेतना की जागृति का
मार्ग अब प्रसस्त करो।
हे ! दिनकर तुम उदयाचल हो
इस धरा पे फिर क्षितिज धरो।
मुरली (१९.०२.२०१८)
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