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विरासत दिनकर की

विरासत दिनकर की

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(प्रथम संसर्ग)

हो गया दक्षिणावर्त रवि 
ले पांव पखारे है समुद्र;
उदयाचल कब होगा अब तू?
रण-काव्य पुकारे हो तुझे क्रुद्ध । 

हताशा से ज्वलंत हृदय 
करती पुकार ये धरा ऋणी; 
हे ! मगध नरेश के अधिकारी 
कर स्वीकृत मेरी श्रद्धांजलि ।

है कालजयी तेरी रचना 
इति के पन्नो की अमिट छाप; 
क्षितिज के रवि का अमूर्त रूप 
करता मैं तुझको शत बार नमन ।

हे ! तिरुपति मुझे दे क्षमादान 
मैं आज करूंगा तेरा अपमान; 
दिनकर के प्राण क्यों तूने हरे?
मेरे मन को क्यों वेदना दिए ?

इस शब्द महारथी के विषाद का 
नहीं किया तूने कोई समाधान;
यूँ मृत्यु के अभिलाषा को 
तू कैसे करेगा सर्वमान्य?

अस्तितव के इस सार का 
विस्तार करो तो क्या मिला ?
एक ऐसा राष्ट्र औ एक समाज 
जो परिकल्पना के है परे ।

जाति-धर्म की महामारी से 
सिंचित की है राजनीति;
राष्ट्र की परिकल्पना का 
हमने किया है अग्निदान । 

है वेदना अब भी वही 
कुछ नहीं हुआ अब तक सही; 
काल के विकराल का मुख 
हो गया है रण के सम्मुख ।

आदमी के चेतना को 
जड़ रखा किस घाव ने?
चेतना की जागृति का 
मार्ग अब प्रसस्त करो।

हे ! दिनकर तुम उदयाचल हो 
इस धरा पे फिर क्षितिज धरो।
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मुरली (१९.०२.२०१८)

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