अगर मैं महामहीम होता...!
वो भीष्म प्रतिज्ञा न होती, तम का प्रसार न होता.
वो गांधार कुमारी न होती, शकुनि प्रपंच न होता.
वो शत-पंच का अनुपात, वो अहंकार न होता.
वो वंश भेद न होता, रज का विनाश न होता
वो द्युत सभा का दूर-भाग्य, वो चीर-हरण न होता.
वो असहज मित्रता का प्रमाण, वो अभिलाषा न होती.
रण का रणपति न होता, सहश्र संहार न होते.
न वो कुरुक्षेत्र होता, न धरा लहूलुहान होती
बाण शैय्या पर लटका शरीर, वो असहाय वृद्ध न होता.
कल-छल की विजय न होती, इतिहास बदनाम न होता
वो प्रिय पार्थ का रुदन, वो विजय-नाद न होती
छलिये का छल न होता, सम-पशु मृत्यु न होती
पर क्या द्वापर का अंत औ कलयुग आरम्भ होता?
सुप्तता का अंत और धर्म-स्थापना होती?
द्विज रूपी परीक्षित के संतान हम,
अधर्म की धारा तोड़, धर्म-नलिनी प्रस्फुटित होती?
और इस अनंत प्रवाह में क्या,
धर्म इतनी शीघ्रता से मलिन होता?
सोच कर विचार कर, हे ! मनु संतान
पूर्वजो क रक्त का क्या तूने किया है पिंड-दान?
रूदती-कराहती आत्मा, कैसे करेगी स्नेहपान?
हे मनुज के संतान, हे अद्वितीय प्राणवान
क्या किया तूने?
अपनी खुद की जात का सर्वनाश किया तूने.
पिब और रुग्न का बस, बीज पिरोया तूने.
जो जन्म देती रुग्ण्ता और पोषती चरित्र असुरता के.
हे! गोविन्द ले जन्म आज, दे दिव्य ज्ञान वो पुनः भीष्म को.
पुनः एक बार और छल से, दिला दे विजय उस पार्थवीर को.
बीज-रोपित कर गर्भ कुंती के, लौटा दे धर्मराज और भीम को.
मुरली
(12.01.2018)
(12.01.2018)
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