मिट्टी-मर्यादा-मर्दन
नूपुर के ताल पे थिरकती हवा कुछ कह रही है,
वसुधा की ये अपनी सौंध मिट्टी में पिरोई,
बे-परवाह ये आलम ये मंज़र यूँ पुकारे,
वतन की सुप्त-चेतना को उजागर कर रही हैं।
वित्त की मदिरा में लिप्त सब लोक-जन हैं,
यायावर-आगंतुक बोझ अब बनने लगे हैं,
तमचर-निशाचर खो गए कहीं भीड़ में हैं,
सैंधव की पग-टाप विस्मृत हो गई हैं ।
कुंजर की चिंघाड़ कहीं पे खो गई हैं,
नटखट बाल-क्रीड़ा सोच जवानी रो रही हैं,
गगन-स्पर्शी स्वप्नों की भटक अब छोड़ कर यूँ,
कहाँ लौटोगे, उस भूतकाल के गर्भ में अब !
कान्तर का क्षय भी न अब तू रोक पाया,
उदक-वायु के बुजुर्गी को भी हैं नज़दीक लाया,
अंजाम क्या होगा तेरा अब हैं न पता,
अंतर्ध्यान अब वह दृश्य भी तो हो गया हैं ।
अगम का ये समय भी अब कहीं से आन पहुँचा,
अपरिचित हैं या नावाकिफ अब ये जान ले तू,
हैं विलक्षण ये समय कलयुग का अब,
विघ्न को भी अवसर बना के भेजता हैं ।
अभयंतर का दुःख-दर्द उठकर कह रहा हैं,
दिनकर भी कही लुप्त हो कर देखते हैं,
अकिंचन के दीनता की किसको फ़िकर हैं?
अनादर की तलब इसको विरासत से मिली हैं ।
हुल्लड़ और हुड़दंग जवानी पी गयी हैं,
उपद्रव भी खटकीट भांति पीस गई हैं,
भगजोगिनी को ढूंढते यह नेत्र मेरे,
खरहा की तरह ये भागते दो पैर मेरे।
संजोये याद को उस बाल-पन के
खड़ा हूँ ऐ जवानी ! देख सीना तान कर के।
मुरली (०५.०२.२०१९)
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sundar
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