नारी:-काल की एक विवेचना
काल की इस विवेचना में, महाकाल है सो रहा
गिरिधर भी हैं सो रहे, द्रौपदी फिर साख पर.
है द्युत सभा फिर से सजी, है कौरवो का झुण्ड भी
है वेदना की आह फिर, आसिफा सूली चढ़ी.
हे नारी जगत की दुःखहारी, है नयन में मेरे अश्रु भरी
पुरषार्थ मेरा है शर्मशार, जो देख गया ये दुर्व्यवहार.
रुदन भरी इस स्याह से, क्या लिखू तेरे विषाद को?
रो रहा मानो ये नेत्र आज, पर अश्क कहीं दीखता नहीं
नयन में है मिचमिची, है लाज का प्रवाह भी
रग-रग मेरा है शर्मसार, ले जननी के आँचल का मृत्युभार
अतीत के प्रतिरूप को, है किया पुरुष ने शर्मशार
जग-जननी-जीवन के माध्यम को, सम-पशु दिया है मृत्युदान
है रोम-रोम रुदन को व्याकुल, नोच लू उसे शकुनि समान
है चीख वो गुंजायमान, करता पटल को दैदीप्यमान.
समर अभी तक शेष है, नहीं पंहुचा अभी तक श्मशान.
जिस आँचल में सुख पाया था, उस आँचल को मैलाया है
हे निर्भया अब शस्त्र उठा, अम्बर को भी दया न आया है.
दुर्गति हो ही गई, सीमा का भी अंत हुआ
कर रक्तपान अब रक्तबीज का, कलयुग का संहार करो.
तुला भी करवट ले रहा, ये बोझ एकवट हो गया
"मेरे घर आई एक नन्ही परी" का नाद अब तो सो गया.
अचेतना के दौर का अब, हे देवी संहार करो
है आह्वान तेरे रौद्र रूप का, दुःशासन का नाश करो.
हे नारी, जगत की दुःखहारी, तुम स्वयं तुम्हारी कवच गढ़ो.
मुरली (१६.०४.२०१८ )
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