सृजन की चाह
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अविराम-अविचल मृग-मन मेरा
अभेद्य इसकी पट-शाला
करुणा की मधुशाला में
से भरा पड़ा है ये प्याला
चेतना के इस खिंचाव को
करूं कहां तक संपादन
सृजन के चाह के इस अनल को
कर सकता नीर अब नहीं समन
नौका ये धार के उलट बहे
पर जान लगानी अब भी होगी
है दर्शक उस पार नदी के तीरे
कर्तल ध्वनि बजानी होगी
हार के द्वार का अभिवादन ही
विजय-मार्ग प्रसस्त करेगा
क्या पता मुझे इसे उहा पोह में
ही सकल काम सम्भावी होगा
गर्जन सुनो इस नील अम्बर का
जिसकी सीमा का अंत नहीं
ललकार रोंगटे खड़े है
लक्ष्य संधान अब दूर नहीं
चाह के इस द्वंद्व खेल में
क्या गलत सही ये पता नहीं
मरी पड़ी ये ज्वलंत चेतना
का अब शीघ्र उत्थान करो
उथल-पुथल और उहा-पोह का
है पर्याय जीवन सबका
रण-सम है न उससे कम है
नील-हलाहल पान करो
इस मंज़र से निकलेगा तब
अवनि -विजयी कहलायेगा
कंठ नील हो न हो ये अब
विष-पान हरेक कर जायेगा
मुरली
(३०.०३.२०१८)
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