सम्बन्ध- ज़िन्दगी और बेबसी का
आस की फाँस में बंधा,
बैठा रहा ज़िन्दगी, तेरे आँचल तले
बेबसी और टूटे ख्वाब उर चिर गए कदमों तले ।
जहाँ दिल झुका था वही सर झुका,
मुझे कोई सजदों से रोकेगा क्या?
ऐ ज़िन्दगी ! काश तू भी सावधिक परीक्षा लेती,
थक गया हूँ रोज़ की इस उलझे इम्तहान से।
गर समझे मुनाशिब इसे तो, हिसाब एक बार कर ले,
एहसान का बोझ नहीं डालूंगा, ये वादा है मेरा।
भाग्य से स्वतंत्र तेरा पुरुषार्थ, कभी अधीन हो के देख
जो मानते होंगे इसे एहसान,
मुझसे एहसान ये वापिस ले के देख
मानूंगा मैं एहसान तेरा, मेरी ज़िन्दगी तो ले के देख।
ठठोली लगती तो होगी ये दिल्लगी तुझको,
सलीका हैं नहीं तो आ मैं वो तुझको सीखा दूँ ।
तदबीर तू मुझको सुझा दे, कुछतो जीने की वज दे,
इस आडम्बर, इस रास्ते को साहिल से मिला दे।
तिमिर के बांध को अब तोडना है,
तुरग के भांति अब तो दौड़ना है ।
दिवाकर इस संवाद के तो साक्षी है,
बेबसी को भी तुला पे तौलना है।
तिजारत मैं करूँगा, संवेदना का त्याग कर के,
एक नहीं सौ-सौ कदम बाहर निकल के।
यह छोर भी उस छोर से ओझल रहेगा,
कलित जल-सिंधु-तरंग नभ तक छुएगा।
दस्तूर तेरा चल गया हैं,
मोह की इस फाँस से तू बंध गया है।
मरहूम अब तू बन जा या मुझको बना दे,
या जीने का सही मकसद बता दे।
दुर्भिक्ष है मेरा समय यह मानता हूँ,
पर है समय तेरे ही नत यह जानता हूँ।
पूर्वार्ध तुम मम-कृत्य का व्याख्यान दे दो,
दुर्भाग्य मुझको कब डंसेगा? संज्ञान दे दो।
दूभर है इस बेबसी के साथ जीना,
हलाहल भांति अब यह साँस पीना।
जनशून्य यह जीवन नहीं मुझको है जीना,
जबरन हलाहल अन्यत्र का मुझको न पीना।
कुसीद होगा ये जीवन मेरे तनय को,
चेतावनी मेरी है इस बिगड़े समय को।
"मृतार्जुन", कदाचित नाम होता,
किंचित समय भी उसीका का दास होता।
परलोक से वो देखता मुझको पुकारे,
कर पुष्प की वृष्टि, मुझको वो दुलारे।
पर यह बेबसी अब भी वही है,
दे मोक्ष अब इसको, यह ही सही है।
बैर तुझसे है, नहीं इस बेबसी से,
मृतकाय है जो ये तनु, बस इसीसे।
नश्वर है, इसे जलधाम में ऐसे उड़ेलो
सूर्यवंश के नाम की ख्याति समेटो।
उरग के दंश की सी वेदना है,
वक्ष की मिटती हुई संवेदना है।
परमधाम में ही अब मिलूंगा,
तिजारत मैं वहाँ तेरी करूँगा।
आबरू है ताक पर तू ये समझ ले,
वय का फतह इस वक्त पर अब तक नहीं है।
समसान का वो रास्ता ओझल हो ऐसा,
चेतना का ये मेरे मकसद नहीं है।
स्वार्थपरायणता है यहाँ अपने चरम पे,
किसको यहाँ पर क्या पड़ी तेरे मरम से।
कायर तेरा सौभाग्य होगा !
दुर्भाग्य देखो है ठिठोले मारता।
तीर पर तक़दीर लटकी यूँ पड़ी है,
कर्म में पुरुषार्थ की खुटी गड़ी है।
समर में धीर मेरा पूछता है,
तिमिर में भाग्य मेरा जूझता है।
बैठा रहा ज़िन्दगी, तेरे आँचल तले
बेबसी और टूटे ख्वाब उर चिर गए कदमों तले ।
जहाँ दिल झुका था वही सर झुका,
मुझे कोई सजदों से रोकेगा क्या?
ऐ ज़िन्दगी ! काश तू भी सावधिक परीक्षा लेती,
थक गया हूँ रोज़ की इस उलझे इम्तहान से।
गर समझे मुनाशिब इसे तो, हिसाब एक बार कर ले,
एहसान का बोझ नहीं डालूंगा, ये वादा है मेरा।
भाग्य से स्वतंत्र तेरा पुरुषार्थ, कभी अधीन हो के देख
जो मानते होंगे इसे एहसान,
मुझसे एहसान ये वापिस ले के देख
मानूंगा मैं एहसान तेरा, मेरी ज़िन्दगी तो ले के देख।
ठठोली लगती तो होगी ये दिल्लगी तुझको,
सलीका हैं नहीं तो आ मैं वो तुझको सीखा दूँ ।
तदबीर तू मुझको सुझा दे, कुछतो जीने की वज दे,
इस आडम्बर, इस रास्ते को साहिल से मिला दे।
तिमिर के बांध को अब तोडना है,
तुरग के भांति अब तो दौड़ना है ।
दिवाकर इस संवाद के तो साक्षी है,
बेबसी को भी तुला पे तौलना है।
तिजारत मैं करूँगा, संवेदना का त्याग कर के,
एक नहीं सौ-सौ कदम बाहर निकल के।
यह छोर भी उस छोर से ओझल रहेगा,
कलित जल-सिंधु-तरंग नभ तक छुएगा।
दस्तूर तेरा चल गया हैं,
मोह की इस फाँस से तू बंध गया है।
मरहूम अब तू बन जा या मुझको बना दे,
या जीने का सही मकसद बता दे।
दुर्भिक्ष है मेरा समय यह मानता हूँ,
पर है समय तेरे ही नत यह जानता हूँ।
पूर्वार्ध तुम मम-कृत्य का व्याख्यान दे दो,
दुर्भाग्य मुझको कब डंसेगा? संज्ञान दे दो।
दूभर है इस बेबसी के साथ जीना,
हलाहल भांति अब यह साँस पीना।
जनशून्य यह जीवन नहीं मुझको है जीना,
जबरन हलाहल अन्यत्र का मुझको न पीना।
कुसीद होगा ये जीवन मेरे तनय को,
चेतावनी मेरी है इस बिगड़े समय को।
"मृतार्जुन", कदाचित नाम होता,
किंचित समय भी उसीका का दास होता।
परलोक से वो देखता मुझको पुकारे,
कर पुष्प की वृष्टि, मुझको वो दुलारे।
पर यह बेबसी अब भी वही है,
दे मोक्ष अब इसको, यह ही सही है।
बैर तुझसे है, नहीं इस बेबसी से,
मृतकाय है जो ये तनु, बस इसीसे।
नश्वर है, इसे जलधाम में ऐसे उड़ेलो
सूर्यवंश के नाम की ख्याति समेटो।
उरग के दंश की सी वेदना है,
वक्ष की मिटती हुई संवेदना है।
परमधाम में ही अब मिलूंगा,
तिजारत मैं वहाँ तेरी करूँगा।
आबरू है ताक पर तू ये समझ ले,
वय का फतह इस वक्त पर अब तक नहीं है।
समसान का वो रास्ता ओझल हो ऐसा,
चेतना का ये मेरे मकसद नहीं है।
स्वार्थपरायणता है यहाँ अपने चरम पे,
किसको यहाँ पर क्या पड़ी तेरे मरम से।
कायर तेरा सौभाग्य होगा !
दुर्भाग्य देखो है ठिठोले मारता।
तीर पर तक़दीर लटकी यूँ पड़ी है,
कर्म में पुरुषार्थ की खुटी गड़ी है।
समर में धीर मेरा पूछता है,
तिमिर में भाग्य मेरा जूझता है।
मृतार्जुन (मुरली)
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