रूह की आखिरी साँस
मायाजाल नहीं तो फिर क्या !
सीमाओं के परे समय
तय किया नहीं आने का तल पे,
जाने का भी पता नहीं !
गहराई में और उतर कर,
रूह को जब पहचाना है;
माना है तब श्वास ये है क्या,
पहले-अंतिम को जाना है।
बदन को आगे और टटोला,
तब पाया इस काया ने;
घूँघट ओढ़े मृद-गात की,
चैतन्य को मिथक बनाया है।
: मृतार्जुन
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